गुरुवार, 19 मार्च 2015

मोरे सइयां मारे रे।।

लोकगीतों में तात्कालिक समाज की सारी घटनाएं बिना किसी सेंसर के देखी जा सकती हैं... ऐसा एक प्रसंग है औरतों के प्रति घरेलू हिंसा का। एक मार्मिक गीत देखिये ..
सासु मोरा मारे,ननद मोरा मारे, मोरे सइयां मारे रे।
बबूर डंडा तानि तानि, ए माई मोरे सइयां मारे रे।।
सासु मारे सुट्कुनिया, ननद मारे पटुका।
मुंगरी से मारे तानि पिठिया मोरे सइयां मारे रे।।

सास या ननद के द्वारा मारे जाने पर स्त्री को जरा भी दुःख नही है । उसकी छाती इसलिए फटती है कि जिसे वह अपना रक्षक और देवता समझती जिसे उसने कोमल स्नेह और मनुहार दिया उसने मारा। उसके पति ने उसे मारा जिसने उसकी सुरक्षा की शपथ अग्नि के सामने ली।

सासु के न दुखवा, ननद के न दुखवा मोर छतिया फाटे रे।
मोरे राजा तोरई गोडवा करेजा फाटे रे।।
इतने सब के बाद वह अपना दुःख माँ बाप से नही कहती...

माई रोइहीं मचिया बईठे बाबू रोईहीं खटिया रे।
सुनि के मोरा रे दरदिया ऊ दूनू रोइहीं रे। ।

5 टिप्‍पणियां:

Manoj Kumar ने कहा…

अच्छी रचना !

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-03-2015) को "नूतनसम्वत्सर आया है" (चर्चा - 1924) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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भारतीय नववर्ष की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

सही कहा

रश्मि शर्मा ने कहा…

लोक गीतों में ऐसे भी भाव समाहि‍त होते हैं। ये सुनने-पढ़ने में अच्‍छे लगते हैं पर समाज का आईना भी हैं ये।

Satish Saxena ने कहा…

वाह !
अनूठी रचना है यह !