गुरुवार, 31 जुलाई 2014

"गुड़ुई" : नाग पंचमी

नाग पंचमी को हमारे यहां जौनपुर में   "गुड़ुई" भी कहा जाता है। गुड़ुई के एक दिन पहले हम लोग बेर की टहनियों को काट कर उसे हरे नीले पीले लाल रंगो से रंगते हैं । बहनें कपडे की गुड़िया बनातीं।  साल भर के पुराने कपडे लत्ते से सुंदर सुंदर गुड़िया बनाई जाती। गुड़िया बनाना एक सामूहिक प्रयास होता था। इस बहानें अम्मा अपनी गुड़िया बनाने की परम्परात्मक  कला का हस्तांतरण बहनों को करतीं। हम सब भाई इस फिराक में रहते कि मेरी बहन की गुड़िया सबसे सुंदर होनी चाहिए। गुड़िया सजाने के सारे सामान जुटाए जाते। गुड़िया तैयार होने के बाद एक बार बच्चों में फौजदारी तय होती थी कि तलैया तक कौन गुड़िया ले जायेगा। गुड़िया को खपड़े पर लिटा कर अगले दिन के लिए उसे ढँक दिया जाता था। उसके बाद  गोरू बछेरू को नहला धुला कर उनकी सींगों पर  करिखा लगा कर गुरिया उरिया पहना कर चमाचम किया जाता था। 

गुड़ुई के दिन ' पंडा वाले तारा' पर हम सब भाई बहिन जाते थे। बहिने गीत गाते जोन्हरी की 'घुघुरी' लिए ताल के पास पहुँचती थी। वहाँ जैसे ही गुड़िया तालाब में फेंकी जाती हम  सब डंडा ले   गुड़िया  पर पटर पटर करने लगते। इस खेल में एक नियम था कि डंडे को आधे से तोड़ कर एक ही डुबकी में गुड़िया सहित डंडे को तालाब में गाड़ देना है। जो यह कर लेता वह राजा। खैर इस चक्कर में हम सब सांस रोकने का अच्छा अभ्यास कर लेते।

 डाली पर झूला पड़ा है।  बहिनें गा रहीं 

हंडिया में दाल बा गगरिया में चाउर.. 
हे अईया जाय द कजरिया बिते आउब.... 

कोल्हुआ वाली फुआ ने कहा .... हे बहिनी अब उठान गावो चलें घर में बखीर बनावे के है। 

उठान शुरू 

तामे के तमेहड़ी में घुघुरि झोहराई लोई ....

इधर हम सब अखाड़े पहुँच जाते। मेरे तीन प्रिय खेल कुश्ती, कूड़ी (लम्बी कूद ) और कबड्डी। कूड़ी में उमाशंकर यादव के बेटवा नन्हे का कोई जोड़ नही था। ज्वान उड़ता है । वह दूसरे गांव का है । हमारे यहाँ के लड़के क्रिकेट खेलते थे इसलिए नन्हे से कोई कूड़ी में जीत नही पाता। हाँ कुश्ती को हमारे गाँव में श्रेय बच्चेलाल  पहलवान को  को जाता है। बच्चेलाल के एक दर्जन बच्चे थे। वह अपने बच्चों को खूब दांव पेच सिखाते थे। धीरे धीरे गाँव में कुश्ती लोकप्रिय हो गयी।  मैं अपने बाबू (ताउजी)  से कुश्ती सीखता था। गुड़ुई वाले दिन कुश्ती होनी होती है । सारा गाँव जवार के लोग जुटते हैं। जोड़ पे जोड़ भिड़ते भिड़ाये जाते हैं। 

मार मार धर धर
पटक पटक 
चित कर चित कर 
ले ले ले 

फिर हो हो हो हो हाथ उठकर विजेता को लोग कंधे पर बैठा लेते। अचानक गाँव के सबसे ज्यादा हल्ला मचाऊ मोटे पेलवान सुग्गू ने मेरा हाथ उठाकर कहा 'जो कोई लड़ना चाहे रिंकू पहलवान से लड़ सकता है!' बाबू सामने बैठे थे। मैंने भी ताव में आकर कह दिया ' जो  दूध  माई का लाल हो आ जाए'  मेरी उमर लगभग पंद्रह बरिस रही होगी उस समय मेरी उमर के सभी लड़के मुझसे मार खा चुके थे सो कोई सामने नही आया। अचानक कोहरौटी से हीरालाल पेलवान ताल ठोकता आया बोला मेरी उमर रिंकू से ज्यादा है लेकिन अगर ये पेट  के बल भी गिरा देंगे तो पूरे कोहरान की ओर से हारी मान लूँगा। सुग्गु ने हल्ला मचाया। अखाड़े में हम दोनों आ डटे। हीरा मुझे झुला झुला फेंकता।  बाबू की आखों में चिंता के डोरे दिखने लगे। हीरा ने मेरी कमर पकड़ी और मेरा सर नीचे पैर ऊपर करने लगा। जैसे ही मेरा पैर ऊपर गया मैंने पूरी ताकत से हीरा के दोनों कान बजा दिए। हीरा गिरा धड़ाम से। मैंने धोबीपाट मारा।  सुग्गु हो हो हो करते मुझे कंधे पर लाद लिए। फिर तो नागपंचमी वाला दिन मेरा। 

अखाड़े से वापस आने के बाद अम्मा ने बखीर(चावल और गुड से बनता है ) बनाया था साथ में बेढ़नी (दालभरी पूड़ी) की रोटी भी खाई गयी । रात में गोईंठा (उड़द से बनता है ) भी बना था जिसको बासी  खाने का मजा ही कुछ और होता था। 

शाम को कजरी का कार्यक्रम मंदिर में नागपूजा  और ये सब बारिश की बूंदाबांदी में।

शाम की चौपाल में 

रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना.……  हो बरसे बदरवा ना.……  हो  बरसे बदरवा ना.……  कि रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना।
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बंसिया बाज रही बृंदाबन टूटे सिव संकर के ध्यान। .... टूटे सिव संभो  के ध्यान.... 

सुक्खू काका जोर जोर से आलाप ले  रहे। सारा गाँव झूमता है । अमृत रस पीकर धरती की कोख हरी हो गयी है। 

यही तो नागपंचमी का जादू है। 

यह आंदोलन भी विकल्प की तलाश करेगा

कोई भी आंदोलन किसी नेता की बपौती नहीं है। हाँ नेता  सही चैनल देने में मदद करता है यदि वही नीर क्षीर विवेक वाला है तो। आंदोलन अपना नेतृत्व तलाश  लेता है। 

स्वतंत्रता के बाद आंदोलनकारी के रूप में पहले एंटी कांग्रेस ताकतें सक्रिय रही चाहे वह लोहिया के नेतृत्व में हो या जेपी के। लेकिन आंदोलन में सबसे ज्यादा मार जनता को ही पड़ती है। 

1975, 1989 और 2011  में देश बड़े आंदोलन देख चुका है। विगत दो आंदोलनों की अपेक्षा 2011 में हुये आंदोलन  प्रकृति कुछ अलग सी रही। इस बार यह आंदोलन पूरी तरह से जनता के  हाँथ रहा। इस आंदोलन के चेहरे के रूप में   बाबा रामदेव, अन्ना हजारे और  अरविन्द केजरीवाल सामने आये।  ये लोग  इस भ्रम में थे कि जनता उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व से अभिभूत हो उनके एक इशारे पर सरकार  ईंट बजा देगी। मैं इसे भरम ही कहूँगा क्योंकि जनता की अपनी आकांक्षाएं और उम्मीदें होती है। वह उन उम्मीदों की पूर्ती के लिये सड़कों पर आती है। ऐसे में खुदमुख्तारी भारी पड़ती है आंदोलन और व्यक्तिगत दोनों।

बाबा रामदेव पर लाठीचार्ज और उनका महिला के वेश में वहाँ से भागने का आंदोलनकारियों और  जनता में नकारात्मक सन्देश लेकर गया। पूरी उम्मीदों और जनता का स्थानांतरण अन्ना आंदोलन में देखने को मिला। अन्ना पूरी तरह अरविन्द और मैनेजिंग कमेटी पर निर्भर थे। बार बार आंदोलन और सही दिशा के अभाव में जनता उनसे छिटकने लगी। इस बात को अरविन्द केजरीवाल  ने भांप लिया और अन्ना से अलग होकर पार्टी बना ली। लोगों में गुस्सा तो था ही सो एक बार दिल्ली में केजरीवाल को भी मौक़ा मिला लेकिन केजरीवाल अपनी व्यक्तिगत कमजोरियों से उबर न सके और जनता फिर से विकल्पहीन। इस दौरान गुजरात से उसे  सकारात्मक सन्देश मिल रहे थे। बाबा रामदेव ने पर्दे के पीछे से मोदी की बैंकिंग करनी शुरू कर दी थी। जनता ने चुनावों के दौरान मोदी को विकल्प मान लिया और मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए।  

अब जनता की उम्मीदें और उस पर मोदी की चुप्पी। छात्रों ने फिर अंगरेजी के मुद्दे पर माहौल को  गरमा दिया है। यह आंदोलन भी विकल्प की तलाश करेगा अगर मौजूदा विकल्प जल्द ही न  चेता।  जनता से ज्यादा दिन नही खेला जा सकता।
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