सोमवार, 14 जुलाई 2014

सारा पनघट रीत गया।

सब कुछ छूटा धीरे धीरे जीवन ऐसे बीत गया
सागर बनते बनते मन का सारा पनघट रीत गया। 

चाँद पे जा अँटका जो उछला सिक्का अपनी किस्मत का 
वक्त जरा दम ले लेने दे, मैं हारा तू जीत गया। 

ना दरिया में डूबा ना ही बदली से बरसात हुयी
फिर भी जाने कैसे जिस्म का, कतरा कतरा भीग गया।

सच कहने वालों को जबसे भूको मरते देखा है
ज़िंदा रहने की खातिर मैं झूठ बोलना सीख गया।

3 टिप्‍पणियां:

Raravi ने कहा…

बहुत सुंदर रचना. पहले तो लगा की किसी प्रख्यात कवि या शायर की रचना तो नहीं! बहुत सुंदर- "चाँद पे जा अँटका जो उछला सिक्का अपनी किस्मत का "- गुलज़ार साहेब की याद दिला गया.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

ना दरिया में डूबा ना ही बदली से बरसात हुयी
फिर भी जाने कैसे जिस्म का, कतरा कतरा भीग गया।. ...
वाह ... सुभान अल्ला ... मज़ा आ गया इस लाजवाब ग़ज़ल का ...

Satish Saxena ने कहा…

पवन भाई ,
गज़ब के गीतकार हो , यह रचना प्रभावशाली इतनी कि मन से वाह निकली है तुम्हारे लिए !
मुझे याद है कि सबसे पहले जब मुझे अपने गीत की तारीफ मिली थी तब कितना प्रबल आत्मविश्वास पैदा हुआ था !
आप से मैं इस माह कम से कम ४ अन्य गीतों की उम्मीद करता हूँ ! मंगलकामनाएं इस पछुआ पवन को , जो दिल हिला देने की सामर्थ्य रखती हो !