मंगलवार, 12 नवंबर 2013

"इस्सर बईठ दलिद्दर भागे "

आज के दिन का हमें बहुत इन्तजार रहता था।  जब भी ऊख के खेतों की ओर जाते तो  रसीले गन्ने देख कर उसे तोड़ने की  इच्छा करती किन्तु बाबूजी की हिदायत कि एकादशी से पहले उख तोडना पाप है, याद कर मन मसोस कर रह जाते।  आज के दिन गन्ने को सजाया जाता था और उनके बीच वैदिक रीति से विवाह कराया जाता।  फिर कुछ गन्नो को घर लाकर  उसके रस से ग्राम देवी "चउरा माई" का भोग लगाया जाता था। तत्पश्चात पटीदारों भाई  भैवादों  के साथ  गन्ने का आनंद लिया जाता था।

एकादशी से एक दिन पूर्व सूप की खरीददारी की  जाती थी।  सुबह चार बजे गांव की सारी महिलाये गन्ने से सूप पीटते हुए "इस्सर बईठ दलिद्दर भागे " कहती हुयी घर से खेत तक जाती थी।  हम बच्चो के बीच एक और मिथ (आप इसे बच्चो का सत्य भी कह सकते है ) था कि जिस बच्चे के मुह में दाने या कुछ और हो गया है अगर वो गांव की सबसे बुढ़िया का सूप छीन कर भागे तो बुढ़िया जितनी गाली देगी चेहरे की सुंदरता उतनी ही बढ़ेगी।  यह काम एक बार हमारे भाई नागा ने किया था।  सुबह बात पता चल गयी तो (बच्चे तब झूठ नही बोला करते ) उनकी इतनी पिटाई हुयी कि बेचारे काले से लाल हो गये।  

आज जबकि ग्रेटर नॉएडा में ये बात मैं अपनी बेटी को बता रहा हु अजीब सी टीस मन में उठ रही है।  मन कर रहा है लपक कर गांव जाउ और सुक्खू कका के साथ ढेर सारी ऊखें काट कर लाऊ और चउरा माई को रस पिलाकर सारे गांव के साथ रस में सराबोर हो जाउ।