गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

नीम का पेड़

खट्ट-खट्ट चिर्र-चिर्र की आवाजे अंततः आने लगी. नीम के पेड़ पर चल रही आरी मेरे दिल को चीरती जा रही थी. मैंने कान बंद कर लिए और घर के अन्दर जाकर अपना सामान  बांधने लगा. माँ ने देखा तो पूछा
ये कहा की तैयारी हो रही है?
वापस कानपुर जा रहा हूँ माँ.
क्यों?
अब मै इन कसाइयो के साथ नही रह सकता.
कसाई किसे कह रहा है तू?
यहाँ जितने लोग है सब कसाई हैं.
छी: ऐसी बाते न करो बेटा, माँ डाटते हुए बोली, जिन हाथों में तू पला बढ़ा अब पढ़ लिख कर उन्ही को कसाई बोल  रहा है.
ये कसाई नही तो और फिर क्या हैं? देखो न नीम को कैसे बेदर्दी से कटवाया जा रहा है. माँ इस पेड़ की आवाज़ सुनो इसकी कराह  और पुकार सुनो.माँ याद है जब मै छोटा था और मुझे "माता" आ गयी थी तब इसी नीम की लौछार तुम मेरे ऊपर फिरा-फिरा  कर शीतला देवी से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करती थी. तब क्या तुमने सोचा था कि  इसे ऐसे काट दिया जाएगा.माँ कम से कम तुम तो स्वार्थी मत बनो.माँ कुछ कहती तभी  बड़े भाईसाहब वह से गुजरे बोले,
माँ इससे मत उलझ.यह बौरा गया है.
हां भईया मै वाकई बौरा गया हूँ इसलिए कि मै स्वार्थी नही हूँ.इसी पेड़ पर दादी ने जीवनपर्यंत जल चढ़ाया. इसी पेड़ के नीचे शालीग्राम रखे गए थे धर्म की प्राथमिक शिक्षा तो हमने यही से पायी थी.
"अरे पगले तभी तो हम लोग  यहाँ मंदिर बनवा रहे है. मंदिर के सामने "नंदी" बैठाने के लिए जगह नही थी इसीलिये इसे काटना पडा.यह तो पुण्य कार्य है.
हुंह मंदिर की परिभाषा जो आपकी है भईया वो मेरी नही है.दसियों साल से इसी पेड़ के नीचे शिवजी (शालीग्राम) विराजमान रहे और पेड़ उनपर छाया करता रहा तो तब क्या यहाँ मंदिर नही था. आज आप कंकर पाथर जोड़ कर इन महादेव को दीवार में बंद कर रहे हैं तो अब ये मंदिर हो जाएगा.
अरे भाई साहब इससे कहा बहस करके अपना दिमाग खराब कर रहे हैं. ये तो शुरू से ही.....मेरे दूसरे भाई बड़े भाई को खीच कर ले जाने लगे
मै आवेश में चिल्ला कर बोला ये देखो मेरे दांत कितने मजबूत है. तुम्हारे भी, बड़े भईया के,पूरे घर के, दादा अस्सी साल के है लेकिन उनके भी दांत सलामत है ये सब इसी नीम की दातुन की वजह से है.

हा हा हा अब तो कोलगेट का जमाना है बच्चू कोलगेट किया करो. तू इतना पढ़ा लिखा होकर गंवारों की बात करता है. पता नही क्या पढता है.
वे लोग चले गये.माँ भी अपने काम में लग गयी. मै अपना बैग लेकर  पिछवाड़े के दरवाजे से बाहर निकल गया.








आधी रात में पूरे  चाँद की
उतरी थी चांदनी.
तुम्हारे फूलों पर,
और उन फूलों से होकर
 मेरे दिल में उतर गयी थी.
तुम्हारे आगोश में रखे,
शिव को देख कर प्रकृति में,
सृजनकर्ता को पहचाना.
और तुम्हारी चंवर डुलाती,
लौछारों के कोमल स्पर्श से,
प्रेम की अनुभूति जाना. 
ओ साथी !
आज मैने घर छोड़ दिया
तुम्हारी आने वाली
फस्लों को बचाने की खातिर











मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

एक महत्वपूर्ण सूचना: कृपया ध्यान दे

एक महत्वपूर्ण सूचना: कृपया ध्यान दे


















ब्लॉग  और पत्र पत्रिकाए साहित्य की दो अलग अलग विधाए है किन्तु दोनों का उद्देश्य एक है जहा इलेक्ट्रानिक माध्यम (ब्लॉग) में पाठको की प्रतिक्रिया तुरंत मिल जाती है वही प्रिंट माध्यम में प्रतिक्रियाये न के बराबर मिलती है लेकिन प्रिंटेड साहित्य पढने का गुनने का अपना एक अलग आनंद होता है. इसीलिये हम सोचते है की हमारे द्वारा लिखी गयी रचनाओं को किसी पत्र या पत्रिका में स्थान मिले. "मीडिया और आप" की लोकप्रियता का शायद यह एक प्रमुख कारण है. इस बात को मद्देनज़र रखते हुए राष्ट्रीय हिंदी मासिक "माटी" जिसका कि मै प्रबंध सम्पादक हूँ , समस्त ब्लागर्स की   श्रेष्ठ रचनाये   आमंत्रित करती है. आपकी रचनाये कृतिदेव अथवा यूनीकोड  में टंकित होनी चाहिए आप उसे मेरे ई मेल pkmkit@gmail.com  पर भेज सकते है.

रविवार, 3 अप्रैल 2011

इस नवरात्रि पर मातारानी को सबसे अच्छी भेंट:माँ के नाम पर गाली देना बंद करे


इस नवरात्र के पावन अवसर पर मै सभी से एक बात कहना चाहता हूँ कि माता को प्रसन्न करने के लिए व्रत रतजगे कन्याभोज पूजा पाठ इत्यादि सब  तब तक व्यर्थ है, केवल पाखण्ड मात्र है जब तक मन साफ़ नही है इस नवरात्र में यदि आप अगर माता रानी की पूजा करना चाहते है तो सबसे पहले एक काम करिए  कि   माँ  को गाली देना बंद करे . नारी को लक्षित समस्त प्रकार की गालियों का उन्मूलन के अलावा कोई भी माध्यम नही है जिससे आपकी आराधना सफल हो . इस बार आप सब गाली न देने का व्रत करे और इसे पूरे जीवन पर्यंत निभाये इससे अच्छी पूजा और भेंट माँ  नवरात्री में और हो ही  नहीं सकती  


मेरी प्रार्थना 

अपनी दुर्बलताओ से जीतू शक्ति देना जगदम्बे
दुनियावी जालो  से निकलू संबल देना माँ अम्बे

जयकारा रतजगा जागरण कभी नहीं कर पाऊंगा
मन ही मन  में एक बार बस एक बार तुम्हे बुलाऊंगा

मेरी मद्धिम  सी पुकार पर तुमको आना होगा
मै सोया रहता हूँ माते  मुझे जगाना होगा

भले बुरे का परिचय देना और अंधेरो में ज्योति
गहरी पीड़ा से मुक्ति नहीं सहने की देना शक्ति

अंधियारों में दीपक बन  जल जाने की इच्छा है
मानवता की सेवा में बलि जाने की इच्छा है

सदा रहे आशीष तुम्हारा छोटी सी ये अर्जी  माँ
मुझमे मेरा जो कुछ है वो तेरा ही  निमित्त  है माँ

                            मुझमे मेरा जो कुछ है वो तेरा ही  निमित्त  है माँ


शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

एक आह्लादकारी क्षण

 उत्तर प्रदेश तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा मेरे लिखे गए कुलगीत का विमोचन हुआ साथ ही साथ संगीत बद्ध प्रस्तुति भी. यह क्षण मेरे लिए आह्लादकारी  था. जब मेरी एक ग़ज़ल कविताकोष में सप्ताह की रचना चुनी गयी थी तब भी मन में ऐसे ही कुछ भाव थे.


मैंने कविताये १३ वर्ष की उम्र से लिखना शुरू किया. मुझे याद है की मै अपने गेहू के खेत में लोट लोट कर नीला आसमान निहारता था और मन में एक एक अजीब किस्म की अनुभूति महसूस करता.
मेरा गाँव जहाँ मेरा बचपन बीता हरियाली से पटा हुआ है वही हरियाली मेरी रचनाओं में मुखर होती है.
 अब जबकि मै कंक्रीटों के जंगल में रहने लगा हूँ मुझे वही दिन हूक हूक कर याद आते है.और मुझमे कविता फूटने लगती है.मेरी पहली कविता बसंत ऋतु पर थी. इसके बाद मैंने जीवन की विषमताओ, देशकी स्थिति पर तमाम रचनाये की.
तरुणाई का असर मेरी लेखनी पर भी पडा जिनसे मेरे पाठक गण अच्छी तरह रूबरू है.  कविता या गजल  के अतिरिक्त मैंने गद्यसर्जन भी किया  है जो अभी तक एकाध जगह के अलावा कही मैंने पोस्ट नही किया है.  भविष्य में अवश्य करूंगा.
 बस  आप सब का स्नेह और प्यार ऐसे मिलता रहे ईश्वर से ऐसी कामना करता हूँ.